Lekhika Ranchi

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रंगभूमि--मुंशी प्रेमचंद


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राजा-केवल इसलिए कि मुझे विश्वास है कि नगर का प्रबंध जितनी सुंदरता से मैं कर सकता हूँ, और कोई नहीं कर सकता। नगरसेवा का ऐसा अच्छा और दुर्लभ अवसर पाकर मैं अपनी स्वच्छंदता की जरा भी परवा नहीं करता। मैं एक राज्य का अधीश हूँ और स्वभावत: मेरी सहानुभूति सरकार के साथ है। जनवाद और साम्यवाद का सम्पत्ति से वैर है। मैं उस समय तक साम्यवादियों का साथ न दूँगा, जब तक मन में यह निश्चय न कर लूँ कि अपनी सम्पत्ति त्याग दूँगा। मैं वचन से साम्यवाद का अनुयायी बनकर कर्म से उसका विरोधी नहीं बनना चाहता। कर्म और वचन में इतना घोर विरोध मेरे लिए असह्य है। मैं उन लोगों को धूर्त और पाखंडी समझता हूँ, जो अपनी सम्पत्ति को भोगते हुए साम्य की दुहाई देते फिरते हैं। मेरी समझ में नहीं आता कि साम्यदेव के पुजारी बनकर वह किस मुँह से विशाल प्रासादों में रहते हैं, मोटर-बोटों में जल-क्रीड़ा करते हैं और संसार के सुखों का दिल खोलकर उपभोग करते हैं। अपने कमरे से फर्श हटा देना और सादे वस्त्र पहन लेना ही साम्यवाद नहीं है। यह निर्लज्ज धूर्तता है, खुला हुआ पाखंड है। अपनी भोजनशाला के बचे-खुचे टुकड़ों को गरीबों के सामने फेंक देना साम्यवाद को मुँह चिढ़ाना, उसे बदनाम करना है।

यह कटाक्ष कुँवर साहब पर था। इंदु समझ गई। त्योरियाँ बदल गईं, किंतु उसने जब्त किया और इस अप्रिय प्रसंग को समाप्त करने के लिए बोली-मुझे देर हो रही है, तीन बजनेवाले हैं, साढ़े तीन पर गाड़ी छूटती है, अम्माँजी से मुलाकात हो जाएगी, विनय का कुशल-समाचार भी मिल जाएगा। एक पंथ दो काज होंगे।
राजा साहब-जिन कारणों से मेरा जाना अनुचित है, उन्हीं कारणों से तुम्हारा जाना अनुचित है। तुम जाओ या मैं जाऊँ, एक ही बात है।
इंदु उसी पाँव अपने कमरे में लौट आई और सोचने लगी-यह अन्याय नहीं, तो और क्या है? घोर अत्याचार! कहने को तो मैं रानी हूँ,लेकिन इतना अख्तियार भी नहीं कि घर से बाहर जा सकूँ। मुझसे तो लौंडियाँ ही अच्छी हैं। चित्ता बहुत खिन्न हुआ, आँखें सजल हो गईं। घंटी बजाई और लौंडी से कहा-गाड़ी खुलवा दो, मैं स्टेशन न जाऊँगी।
महेंद्रकुमार भी उसके पीछे-पीछे कमरे में जाकर बोले-कहीं सैर क्यों नहीं कर आतीं?
इंदु-नहीं, बादल घिरा हुआ है, भीग जाऊँगी।
राजा साहब-क्या नाराज हो गईं?
इंदु-नाराज क्यों हूँ? आपके हुक्म की लौंडी हूँ। आपने कहा, मत जाओ, न जाऊँगी।
राजा साहब-मैं तुम्हें विवश नहीं करना चाहता। यदि मेरी शंकाओं को जान लेने के बाद भी तुम्हें वहाँ जाने में कोई आपत्ति नहीं दिखलाई पड़ती, तो शौक से जाओ। मेरा उद्देश्य केवल तुम्हारी सद्बुध्दि को प्रेरित करना था। मैं न्याय के बल से रोकना चाहता हूँ, आज्ञा के बल से नहीं। बोलो, अगर तुम्हारे जाने से मेरी बदनामी हो, तो तुम जाना चाहोगी?
यह चिड़िया के पर काटकर उसे उड़ाना था। इंदु ने उड़ने की चेष्टा ही न की। इस प्रश्न का केवल एक ही उत्तर हो सकता था-कदापि नहीं,यह मेरे धर्म के प्रतिकूल है। किंतु इंदु को अपनी परवशता इतनी अखर रही थी कि उसने इस प्रश्न को सुना ही नहीं, या सुना भी, तो उस पर धयान न दिया। उसे ऐसा जान पड़ा, यह मेरे जले पर नमक छिड़क रहे हैं। अम्माँ अपने मन में क्या कहेंगी? मैंने बुलाया, और नहीं आई! क्या दौलत की हवा लगी? कैसे क्षमा-याचना करूँ? यदि लिखूँ, अस्वस्थ हूँ, तो वह एक क्षण में यहाँ आ पहुँचेंगी और मुझे लज्जित होना पड़ेगा। आह! अब तक तो वहाँ पहुँच गई होती। प्रभु सेवक ने बड़ी प्रभावशाली कविता लिखी होगी। दादाजी का उपदेश भी मार्के का होगा। एक-एक शब्द अनुराग और प्रेम में डूबा होगा। सेवक-दल वर्दी पहने कितना सुंदर लगता होगा!
इन कल्पनाओं ने इंदु को इतना उत्सुक किया कि वह दुराग्रह करने को उद्यत हो गई। मैं तो जाऊँगी। बदनामी नहीं, पत्थर होगी। ये सब मुझे रोक रखने के बहाने हैं। तुम डरते हो; अपने कर्मों के फल भोगो; मैं क्यों डरूँ? मन में यह निश्चय करके उसने निश्चयात्मक रूप से कहा-आपने मुझे जाने की आज्ञा दे दी, मैं जाती हूँ।
राजा ने भग्न हृदय होकर कहा-तुम्हारी इच्छा, जाना चाहती हो, शौक से जाओ।
इंदु चली गई, तो राजा साहब सोचने लगे-स्त्रियाँ कितनी निष्ठुर, कितनी स्वच्छंदताप्रिय, कितनी मानशील होती हैं! चली जा रही हैं, मानो मैं कुछ हूँ ही नहीं। इसकी जरा भी चिंता नहीं कि हुक्काम के कानों तक यह बात पहुँचेगी, तो वह मुझे क्या कहेंगे। समाचार-पत्रों के संवाददाता यह वृत्तांत अवश्य ही लिखेंगे, और उपस्थित महिलाओं में चतारी की रानी का नाम मोटे अक्षरों में लिखा हुआ नजर आएगा। मैं जानता कि इतना हठ करेगी, तो मना ही क्यों करता, खुद भी साथ जाता। एक तरफ बदनाम होता, तो दूसरी ओर बखान होता। अब तो दोनों ओर से गया। इधर भी बुरा बना, उधर भी बुरा बना। आज मालूम हुआ कि स्त्रियों के सामने कोरी साफगोई नहीं चलती, वे लल्लो-चप्पो ही से राजी रहती हैं।
इंदु स्टेशन की तरफ चली; पर ज्यों-ज्यों आगे बढ़ती थी, उसका दिल एक बोझ से दबा जाता था। मैदान में जिसे हम विजय कहते हैं,घर में उसी का नाम अभिनयशीलता, निष्ठुरता और अभद्रता है। इंदु को इस विजय पर गर्व न था। अपने हठ का खेद था। सोचती जाती थी-वह मुझे अपने मन में कितनी अभिमानिनी समझ रहे होंगे। समझते होंगे, जब यह जरा-जरा बातों में यों आँखें फेर लेती है, जरा-जरा-से मतभेद में यों लड़ने के लिए तैयार हो जाती है, तो किसी कठिन अवसर पर इससे सहानुभूति की क्या आशा की जा सकती है! अम्माँजी यह सुनेंगी, तो मुझी को बुरा कहेंगी। निस्संदेह मुझसे भूल हुई। लौट चलूँ और उनसे अपने अपराध क्षमा कराऊँ। मेरे सिर पर न जाने क्यों भूत सवार हो जाता है। अनायास ही उलझ पड़ी! भगवान् मुझे कब इतनी बुध्दि होगी कि उनकी इच्छा के सामने सिर झुकाना सीखूँगी?
इंदु ने बाहर की तरफ सिर निकालकर देखा, स्टेशन का सिगनल नजर आ रहा था। नर-नारियों के समूह स्टेशन की ओर दौड़े चले जा रहे थे। सवारियों का ताँता लगा हुआ था। उसने कोचवान से कहा-गाड़ी फेर दो, मैं स्टेशन न जाऊँगी, घर की तरफ चलो।
कोचवान ने कहा-सरकार अब तो आ गए; वह देखिए, कई आदमी मुझे इशारा कर रहे हैं कि घोड़ों को बढ़ाओ, गाड़ी पहचानते हैं।
इंदु-कुछ परवा नहीं, फौरन घोड़े फेर दो।
कोचवान-क्या सरकार की तबीयत कुछ खराब हो गई क्या?

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